This is a poem that I came across surfing the net. It talks about the issue of deliberate divide amongst us Indians, being put on religious lines. It seemed logical enough for me to feel the illogical reasoning behind some of the 'dividing' arguments.
नफरतों का असर देखो
जानवरों का बटवारा हो गया
गाय हिन्दू हो गयी
और बकरा मुसलमान हो गया
मन्दिरों में हिन्दू देखे
मस्जिदों में मुसलमान
शाम को मैखाने गये
तब जाकर दिखे इनसान
यह पेड़ यह पत्ते यह शाखें भी परेशान हो जाए
अगर परिंदे भी हिन्दू और मुसलमान हो जाए
सूखे मेवे भी यह देख कर परेशान हो गये
न जाने कब नारियल हिन्दू
और खजूर मुसलमान हो गये
जिस तरह से धरम मजहब पे
रंगों को भी बाँटते जा रहे है
कि हरा मुसलमान का
और लाल हिन्दू का रंग है
तो वह दिन दूर नहीं जब सारी
की सारी हरी सब्ज़ियाँ मुसलामानों की हो जाएंगी
और हिन्दुओं के हिस्से बस
गाजर और टमाटर ही आएंगे
अब समझ नहीं आ रहा
इस तरबूज़ किसके हिस्से जाएगा
यह तो बेचारा ऊपर से मुसलमान
और अंदर से हिन्दू रह जाएगा
नफरतों का असर देखो
जानवरों का बटवारा हो गया
गाय हिन्दू हो गयी
और बकरा मुसलमान हो गया
मन्दिरों में हिन्दू देखे
मस्जिदों में मुसलमान
शाम को मैखाने गये
तब जाकर दिखे इनसान
यह पेड़ यह पत्ते यह शाखें भी परेशान हो जाए
अगर परिंदे भी हिन्दू और मुसलमान हो जाए
सूखे मेवे भी यह देख कर परेशान हो गये
न जाने कब नारियल हिन्दू
और खजूर मुसलमान हो गये
जिस तरह से धरम मजहब पे
रंगों को भी बाँटते जा रहे है
कि हरा मुसलमान का
और लाल हिन्दू का रंग है
तो वह दिन दूर नहीं जब सारी
की सारी हरी सब्ज़ियाँ मुसलामानों की हो जाएंगी
और हिन्दुओं के हिस्से बस
गाजर और टमाटर ही आएंगे
अब समझ नहीं आ रहा
इस तरबूज़ किसके हिस्से जाएगा
यह तो बेचारा ऊपर से मुसलमान
और अंदर से हिन्दू रह जाएगा
Allaha na kare aisa ho
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